International Men's Day: "मर्द को दर्द नहीं होता" आम मसाला मुंबइया फिल्मों के इस एक संवाद ने पुरुषों की भावुकता, स्नेह, अपनापन, वात्सल्य को हृदय के एक कोने में समेट कर रख दिया है। समाज में यह धारणा बन चुकी है कि पुरुष है तो रो ही नहीं सकता। इससे भी बढ़कर वह भाव भी पुष्ट हुआ है कि वह समाज में कमजोर नहीं दिखना चाहिए, न आंतरिक रूप से और न ही बाहरी रूप से।
भारत में पाश्चात्य संस्कृति के वशीभूत होकर बीते कुछ वर्षों से कथित स्त्रीवाद की जो लहर चल रही है, उसने भी पुरुषों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया है।
मसलन, पुरुष है तो सोच गंदी ही होगी, स्त्रियों पर अत्याचार करेगा, स्त्रियों की स्वतंत्रता छीन लेगा आदि-आदि। जबकि तेजी से बदलती इस दुनिया में पुरुष कहीं अधिक संवेदनशील हुए हैं और उनके भीतर कर्तव्यबोध, परिवारबोध का भाव प्रबल हुआ है। किन्तु ऐसे कई तत्व हैं जो आज भी पुरुषों को समाज में बतौर अपराधी के कटघरे में खड़ा करने का कुचक्र रच रहे हैं।
दहेज प्रताड़ना के झूठ का बनते हैं शिकार
एक ओर तो न्याय व्यवस्था में सभी को समानता का अधिकार दिया गया है वहीं यह लिंग के आधार पर असमानता का कारक भी बनता है। दहेज प्रथा के पक्ष-विपक्ष में तर्क-कुतर्क हो सकते हैं किन्तु वर्तमान समय में दहेज कानून पुरुषों के लिये गले की फाँस बन गया है।
शुरुआत में विवाह के सात साल के अंदर दहेज उत्पीड़न कानून लागू होता था। मतलब अगर किसी महिला को उसके ससुराल में प्रताड़ित किया जाता था तो सात साल तक उसके पास यह अधिकार था कि वह उस प्रताड़ना के आधार पर दहेज उत्पीड़न कानून (498ए) के तहत केस दर्ज करवा सकती थी।
लेकिन अब इसे बढाकर पूरी उम्र के लिए कर दिया गया है। यानी कोई महिला चाहे तो शादी के बीस तीस साल बाद भी अपने पति पर दहेज प्रताड़ना का मामला दर्ज करवा सकती है। जबकि विवाह के इतने लंबे अंतराल के पश्चात इन मामलों की प्रासंगिकता ही समाप्त हो जाती है।
अक्सर ऐसे मामले आपसी विवाद के होते हैं किन्तु पारिवारिक अथवा सामाजिक दबाव के चलते दहेज प्रताड़ना के बना दिये जाते हैं। कुल मिलाकर ऐसे मामलों में पुरुषों का चरित्र-चित्रण बतौर अपराधी कर दिया जाता है। ऐसे मामलों में पारिवारिक सदस्य भी आरोपी बनाये जाते हैं जिस पर फरवरी, 2022 में सुप्रीम कोर्ट भी चिंता जाहिर कर चुका है।
आत्महत्या की प्रवृति भी बढ़ी है
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, दुनिया में हर एक लाख पुरुषों पर 12.6 प्रतिशत पुरुष आत्महत्या करते हैं जबकि एक लाख महिलाओं में यह प्रतिशत 5.4 है। दरअसल, पुरुष अपने दुःख को सार्वजनिक नहीं करते। दुनिया क्या कहेगी, समाज क्या सोचेगा के भाव उन्हें अवसाद से भर देते हैं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के अनुसार, 2021 में देश में 1,64,033 लोगों ने आत्महत्या की जिसमें 1,18,979 पुरुष थे यानि 73 प्रतिशत से अधिक। आसान शब्दों में कहें तो आत्महत्या करने वाले हर 10 भारतीयों में सात पुरुष थे।
पुरुषों की आत्महत्या के बढ़ते मामलों के पीछे कई कारण हैं किन्तु एक रिपोर्ट के अनुसार, अधिकतर मामले पारिवारिक कलह के अवसाद से जुड़े हैं। 30 से 45 आयु वर्ग के पुरुषों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृति के पीछे भी पारिवारिक कलह, ख़ासकर वैवाहिक जीवन की समस्याएं हैं। इसमें यदि दहेज प्रताड़ना के झूठे मामलों से होने वाली पुरुषों की आत्महत्या के मामलों को जोड़ लिया जाए तो यह आँकड़ा बढ़ भी सकता है।
अपराधी क्यों बना दिये जाते हैं पुरुष?
क्या कारण है कि परिवार के मुखिया के रूप में प्रतिष्ठित पुरुषों को समाज में अपराधी बना दिया गया है? क्या इसके पीछे कोई साज़िश है?
बाजारवाद के युग में जबसे महिलाओं को केंद्र में रखकर उनके हितों को जोर-शोर से उठाना प्रारंभ किया है तबसे पुरुषों की छवि महिलाओं के विरोधियों के तौर पर गढ़ दी गई है। छद्म नारीवाद के खोखले नारों ने आग में घी का काम किया है। जो पुत्री अपने पिता को आदर्श मानती थी, अपने होने वाले पति में पिता की छवि खोजती थी वह आज अपने पति में बुराइयाँ ही पाती है। नकारात्मक सोच ने उसके मानसिक विकास को कुंद कर दिया है।
रही-सही कसर फिल्मों, सीरियलों और वेब सीरीज़ ने पूरी कर दी है जहाँ पुरुषों का चित्रण ऐसा होता है मानो स्त्री की राह का वह सबसे बड़ा काँटा हो। ऐसा नहीं है कि समाज में यह भाव बहुतायत में हो किन्तु ऐसा दिखाया जाता है और धीरे-धीरे पुरुष जाति को अपराधी ठहराने की प्रवृति बढ़ती जा रही है।
नारीवाद विधारधाराओं की एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य लिंगों की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं व्यक्तिगत समानता को परिभाषित एवं स्थापित करना है। नारीवाद ने स्त्रियों को समान अवसर का मंच उपलब्ध करवाया है किन्तु वर्तमान में नारीवाद पुरुष प्रताड़ना को लक्षित करने का टूल बन चुका है।
नारीवाद अब पुरुषों के हितों, मतों तथा जीवन को न केवल प्रभावित करने लगा है अपितु उन्हें नुकसान भी पहुँचा रहा है। महिलाएं पुरुषों पर हावी होने के लिये "नारीवाद" शब्द का प्रयोग करने लगी हैं। यह सत्य है कि समाज महिलाओं के प्रति पूर्ण रूप से सही नहीं हो सकता किन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं है कि महिलाएं अपने स्वहित के चलते पुरुषों पर तोहमत मढ़कर अनुचित लाभ उठा सकती हैं।
नव नारीवाद स्त्री उत्थान के स्थान पर पुरुष प्रताड़ना अभियान बनकर रह गया है और यही कारण है कि वर्तमान में नारीवाद ने पुरुष वर्ग को सर्वाधिक हानि पहुँचाई है। इसके कारण परिवार भी बिखर रहे हैं।
एक समय था जब नारीवादी होने का अर्थ पुरुष विरोधी होना नहीं होता था किन्तु अब नारीवादी होने का अर्थ ही पुरुष विरोध में झंडा उठाना है। नारीवाद की समर्थक महिलाएं अपने विचारों से ऐसा प्रस्तुतीकरण करती हैं मानो पुरुषों की सत्ता है और उन्हें उसे उखाड़ फेंकना है।
पारिवारिक मूल्यों पर वापस आना होगा
सवाल ये है कि पुरुषों के प्रति हो रहे असमान व्यवहार का क्या कोई अंत नहीं है? बिलकुल है किन्तु उसके लिए समाज को भारतीय पारिवारिक मूल्यों पर वापस आना होगा। परिवार भाव का जागरण करना होगा।
महिला और पुरुष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और जीवन की गाड़ी दोनों में से किसी एक के कमजोर पड़ने से डगमगा सकती है। अतः दोनों में असमानता का कोई बहाना न ढूँढते हुए दोनों एक-दूसरे के पूरक बनें, तभी किसी स्त्री को पुरुष संभावित अपराधी नहीं, विश्वनीय साथी नजर आयेंगे।
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